बुधवार, 2 मई 2018

झमाझम बारिश

झमाझम बारिश
और
आदतन बाहर बैठा हूँ
अकेला में
नही बन रही कोई कविता
नही आ रहे है कोई विचार
तारी है
अकेलेपन का आतंक
कलम और कीबोर्ड असहाय
ताक रहे है टुकुर टुकुर
पर उंगलियां जम गई है
उठ रही है मिट्टी की महक
सोंधी सोंधी सी
कुछ कूड़े करकट की बदबू भी
बीच बीच मे
चमक उठती है बिजली
शायद कहती हुई
कि
मुझे देख बस चमकती हूँ
और
खत्म हो जाती हूँ
या गिर जाती हूँ
कही बर्बादी बन कर
क्या ये कोई जीना है
तू तो बैठा निहार रहा है
अपनी आंखों से सब
और
अनुभूतिक तो होता होगा
प्रकृति से ,बारिश से हरियाली से
उठ खड़ा हो 
और
बैठ जा अपनी उस मेज पर
जहा बैठते ही बन जाता है
तू कवि और लेखक
उंगलियां चलती ही
तो कुछ रच ही देती है
चल उठा गिलास
और हंस दे ठठा कर
और
मैं भी बदली से कहती हूँ
और तू भी बोल चियर्स ।

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