नदी में तैरती लाशें
जब लाइन लग गयी लाशों की
जब बोली लगने लगी लाशो की
जब कंधे की क़ीमत हो गयी लाशो की
जब लकड़ी ब्लैक होने लगी लाशो की
जब टोकन मिलने लगे जलने को लाशो की
तब
हाँ तब लाशें उठी और चल पड़ी
नदियों की तरफ़
कि आग नही तो पानी ही सही
जलेंगे नही तो कछुओं या किसी और
जानवरों के भोजन के काम आ जाएँगे
आख़िर इनकी राख भी तो नदी में ही जाती है ।
वैसे भी कितना खर्च हो गया परिवारों का
और खर्च को घर भी बिकवा दे क्या
अपनो का
और
इन लाशो को तो अपने लेने ही नही आए
लाश से रोग फैलता है
पर लाश की सम्पत्ति और बैंक बैलेंस से नही
इसलिए
इन लाशों ने ख़ैरात से जलने से इनकार कर दिया
और ख़ुद जाकर बह गयी नदी में
किसी सरकार की कोई गलती नही
गलती घर वाली की है
की वो पैसे वाले क्यो नही
और गलती लाशो की भी है
की उसने अपनो को
इतना कायर और स्वार्थी क्यो बनाया ।
नदी तो प्रतीक है इस व्यवस्था का
और लाशें भारत की जनता का ।
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