सोमवार, 10 जनवरी 2011

क्या यही होता है जीवन ?

क्या यही होता है जीवन ?
एक दिन आप जीवन पाते है,
आते तों अकेले है ,पर वहा होते है बहुत से,
हंसने को हंसाने को, खिलाने को, जिलाने को
फिर जिनके कंधो पर होते है आप खुश,
जिनके हाथ पकड़ कर आप पाते है ताकत,
उन्ही कि ताकत ख़त्म हो जाती है और,
आप के कंधे पर सवार वे चले जाते है अनंत यात्रा पर,
लगता है सर पर साया नही रहा ,कोई ताकत नही रही |
पर समय पकड़ा देता है कोई अनजान उंगली जीवन भर को,
जो जीवन का आधार बन जाती है या हो जाती है जीवन ,
पर कुछ लोगो से वक्त छीन लेता है उसे भी बीच रास्ते में ही,
और खड़ा कर देता है आप को ठूंठ कि तरह अकेला |
फिर नजर आते कुछ अपने ही शरीर के टुकड़े कुछ अनुभूतियाँ,
व्यस्त हो जाते है समेट कर खुद को अपनी अनुभूतियो के लिए ,
आप के सहारे चलने वाले आप का सहारा नजर आने लगते है,
समय और परम्पराएँ छीनती जाती है एक एक को बारी बारी,
आप का प्यारा टुकड़ा जो आप का आधार बन गाया है,
अपने जीवन को नया आयाम देने चल पड़ता है नए सफ़र पर,
फिर आप अकेले, जैसे  रेगिस्तान में खड़ा कोई अकेला ठूठ ,
अब ना ही कोई लक्ष्य, ना ही जिम्मेदारी और ना कोई आशा,
हां लक्ष्य केवल जीवन के बचे दिनों को पूरा करना और आशा कि-
बिना किसी को कष्ट दिए या लिए पूरा हो ये जीवन,जिम्मेदारी,
बस खाना पीना समय बिताना और गाना कि.,
दुनिया में हम आये है तों जीना ही पड़ेगा,
जीवन है अगर जहर तों पीना ही पड़ेगा |