मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

मुझे लगा श्राप तो अहिल्या से भी कठोर है

कितना अकेला हो गया मै !
कितना पंगु हो गया मै !
कितना असहाय हो गया मै !
एक चौराहे पर सांसें रोके  खड़ा हूँ मै !
कोई दिशा नहीं ,कोई लक्ष्य नहीं ,कोई इरादा नहीं ,
यदि लक्ष्य है तो बाधा बन कर खड़े है,
अपने ही सदा की तरह |
यदि इरादे है भी तो,
उसपर अन्धकार बनकर छाये है अपने ही |
और घोर अंधकार में कही कोई चल पाया है?
जो मै चल सकूँ ?
बस रास्ते पर पड़े पत्थर सा,
उससे अलग भी तो नहीं हूँ मै!
जब भी कोई कोशिश करता हूँ
की  रुके रास्ते चल पड़े ,
अपनी ही अनुभूतियाँ खड़ी हो जाती है,
बाधा बन कर |
बाहरी अवरोधों को तो ठोकर से हटाया जा सकता है ,
संघर्ष किया जा सकता है उनसे,
पर अपने बहुत प्यारे लोगो से !
शायद नियति ही यही है,
चौराहे का पत्थर बन पड़ा रहना |
जो सिर्फ तब हिल सके जब कोई ठोकर हटा दे ,
या कोई गाड़ी कुचल कर उछाल दे कही |
पर रास्ता तो फिर भी नहीं खुलेगा ना,
जब तक रास्ते खुद से तय ना हो,
लक्ष्य खुद से तय ना हो ,
और उसमे अपनों की खिलखिलाहट ना हो |
अहिल्या की भांति श्रापित पत्थर ही हूँ मै,
चौराहे  के बीच पड़ा हुआ |
अहिल्या के लिए तो राम का आना तय था ,
पर मै तो अकेला हूँ और पहचान खो चुका हूँ |
और जब कोई पहचानता ही नहीं!
तो राम भी क्या करेंगे ?
मुझे लगा श्राप तो अहिल्या से भी कठोर है |












शनिवार, 16 अप्रैल 2011

और खोज ख़त्म हो जाएगी खुद ही



निस्तब्ध सोच रहा हूँ
क्या ये मै ही हूँ
मै हूँ तो इस कदर मौन क्यों हूँ 
क्या सचमुच मै ही हूँ
या ढूढ़ रहा हूँ खुद को और खुद में ही !
पर ये खोज बहुत मुश्किल है,
खुद के अन्दर खोज पाना खुद को ही ,
पर खुद को ---प्रयास जारी है ,
लगता है अब जाने की बारी है | 
फिर होगा मौन ,मौन और बस मौन 
और खोज ख़त्म हो जाएगी खुद ही |

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

कितना गरीब हूँ मै कि आंसू तो है

क्या होता है और क्यों होता है जब 
आंसू आते है, मन करता है की जोरे से रोयें 
बिलकुल बचपन की तरह बुक्का फाड़ कर 
और रो नहीं पाते है |
बस घुटते रहते है, अंदर ही अंदर 
बड़ा क्या हुए, खुल कर रोने का अधिकार भी नहीं 
हँसने की जबरन कोशिश भी रुला देती है 
रोना तो कही मन की, दिल की गहराइयो से आता है 
कोई तो बता दो कैसे रोये, कहा रोये ?
कोई कोना नहीं है छुपाने को 
कोई कन्धा नहीं है सिर रखने को
कोई हाथ नहीं सिर सहलाने को 
कोई गोद नहीं ,सुबकने को 
कोई सीना नहीं हिचकी लेने को
कितना गरीब हूँ मै कि आंसू तो है 
पर रोने की  जगह मेरे पास नहीं 
जुबान भी नहीं बची या दब जाती है 
उसे दबा कर रोने लगता हूँ जोर जोर से
जिसे केवल मै सुन सकू 
अँधेरे में अपने बिस्तर पर या 
उस फोटो के सामने बैठ कर 
जो रोने नहीं देती थी 
जो आधार था हँसने का 
पर मै खुल कर जोर से कैसे रोऊ 
कब तक दबाऊँ मै भावनाओं को फूटने से 
नहीं रोऊंगा जोर से, तो मै फट पडूंगा जोर से |