रविवार, 23 सितंबर 2018

सबको कल इस मिटटी में मिटटी हो जाना है ।

सो जाता हूँ आखिर कल भी तो सो जाना है
इस धरती से दूर कही अम्बर में खो जाना है
धरती पर चलते सोते खाट पे कुछ धरती पर
सबको कल इस मिटटी में मिटटी हो जाना है ।

अक्सर आंखे खुद ही खुद को धो लेती है ।

अक्सर आंखे खुद ही खुद को धो लेती है ।
खुश हो तो हंस लेती है दुखी हो तो रो लेती है ।

बेटे हो या बेटियां मुस्कुरा कर देख ले हम थोड़ा और भी जी जाना चाहते है ।

बेटे हो या बेटियां मुस्कुरा कर देख ले
हम थोड़ा और भी जी जाना चाहते है ।

शनिवार, 22 सितंबर 2018

भारत की जनता सुन लो जरा भारत की
इस देश का हाल , कहा कैसा बवाल
जरा सुन लो भारत की जनता सुन लो


बहुतो ने मिल कर उन्हें नेता बनाया
ताकत लगाया औ कुर्सी पर बैठाया
वो हैं नेता महाँन देखो उनकी शान 
हम सब नीचे उनकी कुर्सी बनी मचान
जरा सुन लो भारत की जनता सुन लो

देखो पसीना बहाए अपना किसान



रविवार, 16 सितंबर 2018

तुम भी डूब कर फिर चमक सकते हो |

किसी के लिए मुझ सहित बहुतो के लिए मेरी लिखी ये कविता ---------------
आप कितने भी मजबूत हो
आप के इरादे कितने भी अटल
पाँव कितने भी अभ्यस्त
और हाथ कितने भी हुनरमंद
मन कितना भी वश में
और दिमाग कितना भी तीक्ष्ण
पर फर फिर भी
जीतने वाले घुड़सवार की तरह
हर युद्ध फतह करने वाले योधा जैसे
हर कुश्ती जीतने वाले पहलवान जैसे
सारी पहाड़ियाँ चढ़ चुके पर्वतरोही जैसे
किसी कमजोर छण में
आप भी धराशायी हो ही जाते है |
पर गिर कर फिर सम्हल जाना
अगर जानते आप
तो फिर
भविष्य आप का भविष्य होता है
और
गिरने की कमजोरी से कमजोर हुए
या
नहीं निकल पाए इस एहसास से
तो घुटन भविष्य का गला घोट देती है |
इसलिए भूलो हर फिसलन को
और हर मार्ग के अवरोध को
बना लो
फिसलन को भी एक सुगम मार्ग
और
अवरोधों को दूर झाँकने की सीढ़ी
सीख लो गलतियों से सबक
और चल पड़ो
अपनी गंतव्य को
पूरे मनोवेग के साथ
देखो वो डूब कर उगता हुआ सूरज
तुम्हे आवाज लगा रहा है
और कह रहा है
की
तुम भी डूब कर फिर चमक सकते हो |

रविवार, 2 सितंबर 2018

बहुत दिनों पर गांव गया था

बहुत दिनों पर गाँव गया था
बहुत दिनों पर गाँव गया था
पर ये मेरा गाँव नहीं था .
मै पागल सा ढूढ़ रहा हूँ ,
कहा गया वो?
सब कुछ बदला नया नया था
सुनते थे सड़के बननी है ,
पूरे गाँव को वो जोड़ेगी .
वो चकरोड बहुत चौड़ा था ,
पगडण्डी सा अब दिखता है .
वो मेरा चकरोड कहा है ?
वो पोखर ,तालाब ,गड़हिया
जो गाँव के तीन तरफ थे
उनसे पूरा गाँव हरा था ,
पशु नहाते ,सभी तैरते ,
मछली पर सबका ही हक़ था .
अब तों वहा मकान बने है
या फिर है रास्ते लोगो के .
सबके घर को तों रास्ते थे ,
सबके पास मकान थे अपने .
फिर ये सब क्या नया नया है .
वो रास्ते और तालाब कहा  है ?
मै पागल सा ढूढ़ रहा हूँ .
वो पाकड़ का पेड़ जहा खेला करते थे
और खुला खलिहान या दालान किसी का,
सब सबका था .
एक बार पड़ा था सूखा ,
कई घरो में अन्न नही था
पर जिनके घर हुआ था
आलू वो भून पंहुचा देता था
जिसका भी गन्ना पेरा जाता
भरी बाल्टी गन्ने का रस
उस घर वो भिजवा देता था .
कोई नहीं मरा था भूखा
नहीं रुका था काम किसी का .
बसवारी के बांस सभी के ,
छानी मड़ैया ,सरपत सबका . .
सब थे छवाते साथ उठाते
और मड़ैया उठ जाती थी.
वो मिले जुले स्वर और हाथ कहा है,
मिलके उठाना की आवाजे
कहा गयी वो .
पहले जब थे शहर से आते
पूरा गाँव अपना लगता था
बहुत लोग मिलने आते थे ,
हाल पूछते ,साथ बैठते ,
घर आने को कह जाते थे .
जिसका भी जो रिश्ता था कह जाता था
भाभी ,चाची,आजी बुला रही है ,
बहुत दिनों से नही है देखा,.
आजी कहती दुबले क्यों हो ,
दूध नही मिलता है ,पीलो!
गाँव के चारो ओर बगीचे लदे आम से ,
मेरे घर आम नहीं था
तब काका ने भिजवाया था .
कहा गए वे  लोग जो ऐसा करते थे,
वे सारे बाग़ कहा है ?
सबके घर एक चारपाई ,
बिस्तर अलग रखा था ,
गाँव कि बारातो और मेहमानों को .
जिसके घर भी दूध दही या सब्जी होती ,
आ जाती थी सब मेहमान सभी के थे तब
+ + + + + + ++++++++++++++++. .
और
अब खुली गई दूकाने सब चीजो की,
कोई किसी को कुछ ना देता ,
सब बाजार से आ जाता है .
वो अपनापन और वे रिश्ते,
मेहमानों के लिए रखे सामान
कहा गए वो ?
सबने रास्ता बंद कर दिया,
खोदे गड्ढे कि भाई को राह मिले ना  . .
सबकी  नाली  बंद कर दिया
या मुह उल्टा मोड़ दिया है
सबके दरवाजे पर कीचड़ ,
राह में कीचड़ ,मन में कीचड़
सबका घर जाना मुश्किल है .
पर संतोष सभी को ये है ,
अपना पडोसी परेशान है ,
कैसे ब्याहेगा वो बिटिया 
वो था गाँव जहा बाराते
शादी वाले घर तक जाती थी ..
जिस गाँव में सबकी बिटिया सबकी थी ,
कहा गया वो ?
कल सुना की फला की बबुनी भाग गयी,
गाँव के लिए बात नयी थी   .
वो शहर में ,
पढ़ी थी कम और बढ़ी थी ज्यादा ,
खूब सिनेमा देख रही थी .
हिरोइन बनने चली गयी
या फिर रिश्तो में ही छली गई वो .
कुछ आदर्श गाँव के ,
बिना बड़ो के पांव नहीं बाहर जाते थे ,
कहा गए वो ?
पहले भी बजार लगता था
और लगती  थी कुछ दूकाने ,
बढ़ते बढ़ते गाँव मुहाने आ पहुची  है .
पूरा गाँव बाजार बन गया ,
कही खो गया,ढूढ़ रहा हूँ
कहा गया वो ?
सबकी शान इसी में
मुक़दमे किसके कितने  कैसे  जीते ,
सब कुछ हो बर्बाद हमारा पर
पडोसी कि बर्बादी मजा आ गया . .
पहले तों गाँव के बूढ़े ही सब कुछ थे,
उनका ही फरमान बड़ा था
पहले शाम बैठके पर बैठक होती थी.
कुछ बुजुर्ग मानस गाते थे .
बड़े चाव से रामचरित वे समझाते थे .
वे बैठके चाय कि दूकान खा गई .
अब गाँव मुहाने देशी की दुकान खुल गई
और पूरा गाँव तरन्नुम में है .
अब बहस है लाल पारी की,
किसमे मजा है ज्यादा देशी में या अंग्रेजी में .
वो किस्से ,वो मानस ,वो चौपाई
और बुजुर्गो कि वे बहसे
कहा गए वे ?
वही गाँव है पर भूतो का लगता डेरा
गाँव तों है पर इंसानों का नहीं बसेरा .
चौबे जी का घर कितनी रौनक रहती थी,
घास उग गई .दीवार गिर गई
छत पर है जाले ही जाले
और भी घर है ,मेरा भी है
जिनमे लटके है बस ताले.
शहर में दो कमरे सपना है
यहाँ बीस कमरों का घर अपना है
लेकिन कुछ है जो बिला गया है
ढूढ़ रहा हूँ जिसकी खतिर
बार बार हम गाँव आते थे,
कहा गया वो ?
+++++++++++++++++++++++
मै पागल सा ढूढ़ रहा हूँ मेरे गाँव को ,
खलिहानों को ,मछली वाले तालाबो को .
बूढ़े बरगद और मौलश्री कि छाव को ,
बर्फ से ठंढे मीठे पानी वाले उस कुए को
भुट्टे तोड़ते थे खेतो में फूट ,ककड़ी खा जाते थे .
वो जामुन वाला पेड़ ,बगीचा आम कि डाली ,
मै पागल सा ढूढ़ रहा हूँ '
जांघिया नाच दिखाने वाली उस टोली को ,
रामायण हो या शादी हो ,
गैस जलाते ,तम्बू लगाते ,
बाजा बजाते इस्माइल को ढूढ़ रहा हूँ .
लाज हया और हसी ठिठोली में मर्यादा ,
शादी में गाली भी तों गायी  जाती थी '
थोडा कहा समझाना ज्यादा वाली भाषा ,
पंचायत पर दंड बैठको वाला अखाडा ,
लाखी पाती वाले खेले ,
कभी कही ,कभी कही के मेले ,
सुथनी और जलेबी गुड की ,
मै पागल सा ढूढ़ रहा हूँ ,
कोई मुझे मेरा गाँव बता दो ,
कहा रुक गए पाव बता दो .
बहुत दिनों पर गाँव गया था
ढूढ़ ना पाया मेरे गाँव को ,
मै पागल सा ढूढ़ रहा हूँ .
कहा गया वो |