बुधवार, 19 अगस्त 2020

वो अकेले बुजुर्ग पड़ोसी

वो अकेले बुजुर्ग पडोसी 
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मेरे पड़ोस में रहते है 

वो अकेले बुजुर्ग इंसान 

बहुत दिनो क्या सालो से 

जानता हूँ उन्हें मैं 

और 

बहुत अच्छी है उनसे पहचान 

पहले उनका घर भरा भरा था 

फिर 

धीरे धीरे खाली होता चला गया 

कुछ चाहे और कुछ अनचाहे 

अचांनक अकेले हो गए वो 
कभी बैठने लगे मेरे साथ 

और बताने लगे 

अपनी पूरी बात 

पहले 

उनके पास बहुत लोग आते थे 

जब वो कुछ थे 

और बहुत लोग 

उनकी उंगली पकड़ कर 

क्या क्या हो गए 

तब तो हालत ये थी 

किसी के घर मौत भी
 
हुयी हो 

तो फोन करता था 

की आप जल्दी आइये 

अर्थी उठने वाली है 

आप का ही इन्तजार है 

शादी हो या कुछ 

कितने लोग बुलाते थे 

वो लोग जो कहते थे कि  

आप का ज्ञान रौशनी देता है 

और आप के बिना तो 

कार्यक्रम हो ही नहीं

सकता 

पर दिन बदलते ही वो सब कही बिला गए 

अब कोई नहीं आता 
कोई नहीं बुलाता 

सबको बना दिया 

पर ये जहा के तहा रह 

गए 

जब कोई उनका अपना 

धोखा देता या 

कर देता पीठ पर वार 

तो ये रहते थे बहुत दुखी 

और बेक़रार 

फिर झाड कर गम की धूल

लग जाते थे फिर उसी काम में 

पर 

तमाम झटको से भी नहीं टूटे थे वो 

मैने देखा है 

बहुत ही संघर्ष किया उन्होने 

पर जब अपने साथ थे 

क्या मजाल उनके चेहरे पर 

शिकन भी आई हो कभी 

लेकिन 

बहुत उदासी पसर आई उनकी आंखो मे 

जब से अकेले हो गए वो 

उनके बच्चे भी चले गए दूर 

अपनी अपनी जरूरी वजहों से 

उनकी सहमती और ख़ुशी के साथ 

बहुत प्यार करते है 

उनके बच्चे उन्हे और उनकी चिंता भी 

पर मजबूरिया अपनी जगह है 

ढाल लिया इस बुजुर्ग ने खुद को हालात में 

अक्सर देखता हूँ 

उन्हें सुबह बाहर निकल कर 
लान से 

तुलसी की पत्तियां तोड़ते 

बताते है 

की उनसे अच्छी चाय 

कोई नहीं बना सकता है 

सेंक लेते है ब्रेड और 

काट लेते है कोई फल 

हो जाता है उनका नाश्ता

बताते है 

की वो बहुत हेल्दी नाश्ता करते है 

नौकर चाकर क्या खिलाएंगे ऐसा 

अक्सर दिखते है कपडे फैलाते और उतारते 

मैंने कहा 
क्यों खुद करते है ये सब 

और इस उम्र में 

बोले कसरत भी है 
और पैसे की बचत भी 

मैंने पुछा की आप को क्या कमी 

तो बस मुस्करा कर रह गए 

मंगाते है खाना है कभी कभी 

शायद दो दिन में एक बार 

मैंने पूछा की आप को तो 

ताज़ा और गर्म खाने की आदत थी 

बोले खाना ज्यादा होता है

और 

फेंकना सिद्धांत के खिलाफ है 

कितनो को तो ये भी नहीं मिलता है 

और 

क्या बिगड़ता है खाने का फ्रिज में 

अंग्रेज तो बहुत दिन तक फ्रिज का ही खाते है 

मैंने पुछा की पहले तो आप कहते थे 

रोज नए नए रेस्टोरेंट में जाऊंगा 

और 

नए नए पकवान खाऊंगा 

तो बोले तबियत का भी ध्यान रखना है न 

और 

अकेले जाना अच्छा भी नहीं लगता 

और रोज जाने मे खर्चा भी कितना हो जायेगा 

कभी कभी बहुत खुश होते है 

जब आने वाला होता है उनका कोई बच्चा 

घर की सफाई ,बिस्तर की चादर 

और सब तैयारी में लगे रहते है 

कई दिन तक 

फिर जब तक बच्चे साथ होते है 

दिखते ही नहीं है बाहर कई दिन 

बच्चो के जाने के बाद कई दिनों तक 

कुछ गुनगुनाते रहते है 

और 

बच्चो के यहां से आने के बाद भी 

कई दिन उदास होते है 

तब पूछना पड़ता है क्या हुआ 

बोले की एक तो अकेला होने के कारण

न आराम और न चैन से बाथरूम ही जा पाते है 

बज जाती है तभी घंटी 

कौन देखे की कौन है 

और 
हमेशा कुछ न कुछ हो जाता है 

कभी दूध गर्म करते है 

और बाहर कोई आ गया 

और दूध गिर जाता है पूरा 
चाय भी 

कभी सब्जी जल जाती है 

तो कभी रोटी खाक हो जाती है 

पुछा की फिर क्या करते है आप 

बोले अगर दिन में होता है 
तब तो हो जाता है 

पर जब रात में जल जाती है 

तो खा लेते है मुट्ठी भर चना 

या अगर ब्रेड है तो वो 

नहीं तो एक कप दूध पीकर सो जाते है 

और 

बोले उस दिन सुबह बहुत ही अच्छा लगता है 

हल्का हल्का 

पर प्लीस मेरे बच्चो से कभी कह मत देना 

की मैं भूखा भी सोता हूँ 
वो सब वैसे ही मेरी बहुत चिंता करते है 

परेशांन रहने लगेंगे 

उन लोगो के खुश रहने 

और मस्त रहने के दिन है 

उस दिन बहुत दुखी थे 

मैंने पुछा क्या हुआ 

बोले 

पता नहीं मैंने पिछले जन्म में

कितनो के साथ बुरा किया है 

की जिनके लिए सब कुछ करता हूँ 

वो सब पीठ पर वार कर चले जाते है 

जाने दो पिछले जन्म का कर्जा ही चुका रहा हूँ 

और 

फिर जोर से ठठाकर हँसे 

और चल दिए 

मैंने कहा कहा चले 

बोले किसी और को ढूढने 

जिसका पिछले जन्म का कर्जा हो 

कभी कभी जब बीमार हो जाते है 

तो दिखलाई नहीं पड़ते 

मिले तो पुछा क्या हो गया था 

बोले कुछ नहीं 

बताओ और क्या हो रहा है 

बहुत कुरेदा 

तो बोले मेरा दुःख तो 

कोई बाँट नहीं सकता 

लेकिन मैं अपने थोड़े से सुख 

तो बाँट सकता हूँ 

आइये कुछ अच्छी बाते करे 

एक दिन कुच्छ ज्यादा परेशांन थे 

मैंने पुछा आज क्या हुआ 

बोले एक चिंता है 

मुझे कुछ हो गया तो 

दरवाजा तोडना पड़ेगा घर का

कितनी दिक्कत होगी न  बच्चो को 
कितने परेशान हो जायेंगे मेरे बच्चे 

और खुला रखना भी मुश्किल है 

और 

उनकी आँखों से टपक गया कुछ 

बाँध जो रुका था काफी दिनों से 

शायद टूटना ही चाहता था 

कि

वो इधर उधर देखने लगे 

और खांसने लगे 

खुद को रोकने को 

और मुझे भरमाने को 

फिर धीरे से उठ कर चले गए 

कई दिनों से नहीं दिखे है वो बुजुर्ग 

मुझे भी उनकी आदत पड़ गयी है 

मैं लगातार ढूढ़ रहा हूँ 

और 

झांक आता हूँ उनके घर की तरफ

लेकिन बस सन्नाटा ही सन्नाटा  

मिलेंगे तो पूछुंगा उनके इधर के नए अनुभव 

और 

सुनुगा उनका खोखला ठहाका 

और फिर मैं भी सर झुका कर 

कुछ छुपा कर चला जाऊंगा 

अपने घर की तरफ 

जहा मेरे अपने इंतजार में होते है ।

कुर्सी और पेड़

क्यों 
इतना अंतर होता है 
कुर्सी और पेड़ में ?
जबकि कुर्सियां भी 
पेड़ो से ही बनती है 
पेड़ देते है छाया 
और 
कुर्सी देती है ताप 
पेड़ देते है हरियाली 
और 
कुर्सी नखलिस्तान 
पेड़ देता है 
साँस लेने को वायु
और 
कुर्सी दम घोट  देती है 
पेड़ देता है फल 
और 
कुर्सी सबका सब खा जाती है 
पेड़ देता है सुखद एहसास
और 
कुर्सी केवल दुःख ही दुःख 
क्यों इतना अंतर होता है 
पेड़ में और कुर्सी में 
जबकि कुर्सियां भी 
पेड़ से ही बनती है 
शायद कभी कोई शोध हो 
और 
कारण पता लगे 
और 
ये अंतर मिट जाये 
कुर्सी और पेड़ का ।

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

एक जंग जारी है

एक जंग जारी है 
अन्दर भी बाहर भी
जब हम सुख भोग रहे होते है 
तन्मयता से
अधिकार और गौरव के नशे के साथ
उस वक्त हम 
रंचमात्र भी नही महसूसते है 
की 
उसी वक्त तैयार हो रहा होता है
किसी दुःख का अनचाहा शिलालेख
उस शिलालेख को देखते है हम अचानक
तब 
ऐसा लगता है सुन्दर स्वप्न देखते देखते
खतरनाक सांप ने जीभ से हमें छू लिया
दुःख और विषाद जब हमें तोड़ रहा होता है
और लगता है की हम जंग हार गए है
अपने ही अस्तित्व को 
स्वीकारने को तैयार नही होते है हम 
उस वक्त भी हमें सबक देकर 
तैयार हो रहा होता है
एक स्वर्णिम भविष्य का सूरज
वह हमें ललकार रहा होता है 
उठ खड़े होने कोऔर कह रह होता है 
की यह पास में ही मै हू
आओ मुझे छू लो ,चाहो तों पा लो
अपनी सामर्थ्य भर,अपनी उत्कंठा भर,
अपने पुरसार्थ भर
मै स्वय तों हू इस कथानक का पात्र
एक जंग के साथ ,
जो भीतर भी है और बाहर भी
की कुछ छण के सुखद सूर्य को 
कैसे और कितना सहेजू
और 
किस तरह बिना सहमे और ठिठके
पार कर जाऊ अन्धेरेपन को
यह जंग लगातार जारी है ,
अन्दर भी और बाहर भी
और 
मै सामने दीवार पार लिखा 
गीता सन्देश वाला चित्र देखकर 
कलम रख देता हूँ
और 
मजबूत कदमो से चल पड़ता हूँ  .

घर या दीवारें

कुछ लोगो को 
कितने लम्बे समय तक कितनी तकलीफ़ो के साथ 
कितना कुछ करना पड़ता है 
एक छोटा सा अपना घर बनाने के लिए ।
फिर एक दिन पता चलता है 
की 
ये तो सिर्फ ईंट गारे की बेजान दीवारे और छत है ।
क्योकी 
घर तो घर वालो से होता है ।

चिट्ठियाँ

जी हाँ 

पहले चिट्ठियां होती थी

सूचना

और

सुख दुःख जानने का साधन

चिट्ठियां भी कई तरह की होती थी

इतना खुला था हमारा जीवन

और हमारा समाज

कि

खुले पोस्ट कार्ड पर

सब कुछ लिख कर भेज देते थे लोग

किसी से कोई धोखा नहीं होता था

क्योकि ये सस्ता होता था

पैसा नहीं होता था लोगो के पास

बस भावनाए और जुडाव होता था

एक चिट्ठी ऐसी भी होती थी

जिस पर टिकेट नहीं लगा होता था

वो भेजने वाले तीन तरह ले लोग होते थे

या तो गरीब रिश्तेदार

या दूर पढ़ रहे छात्र

या फिर वो जो चाहते थे

कि

चिट्ठी हर हालत में मिल जाये उसे

जिसके लिए भेजा है

क्योकि डाक टिकेट का पैसा

उसी से लेना होता था

इसलिए डाकिये की मजबूरी थी

पाने वाले के हाथ में चिट्ठी देना

अंतर्देशीय भी था जो बंद रहता था

पर थोडा महंगा

इसलिए या तो

उसका खर्च वहनं कर कर सकने वाले

लिखते थे इसमें

या फिर कोई गोपनीय बात होने पर

लिखा जाता था ये पत्र

गाँव में तो डाकघर और डाकिया

दोनों वही के होते थे

पर कोई नही झांकता था

किसी के पत्र में

किसी का पत्र तभी पढता था

जब वो खुद पढने को कहता था

रजिस्टर्ड  डाक तो

खैर विरले ही भेजते थे

खास कारणों से

चिट्ठिया भी तरह तरह की होती थी

किसी के कोने पर थोड़ी सी हल्दी का रंग

तो किसी पर लाल रंग

हल्दी किसी शुभ सूचना के लिए

तो लाल रंग

आशिक के दुःख की निशानी था

और ये बताने की कोशिश

की ये खून से लिखा है

गाँव की चिट्ठियों में

सबके हालचाल पूरे गाँव सहित के साथ

गाय बैल उसकी बीमारी

जो बीमार था ठीक हुआ या नहीं

फला गाय या भैस दूध दे रही या नहीं

और कितना दूध दे रही है

कौन कौन पीता है दूध

बाबा भी पीते है या नहीं

और जिसको बच्चा होना है

उसे मिलता है या नहीं

बगीचे का क्या हाल है

कौन कौन सा फल कितना लगा है

किस किस खेत की जुताई हो गयी

किस खेत में पानी लग गया

धन रोपा गया या नहीं

और 

कौन सी फसल कितनी होगी

इत्यादि जरूर होता था

कोई बीमार था गाँव में तो क्या हुआ

किसका इलाज हो रहा है

और मर गया तो कैसे

और

सब सुख दुःख बताने के बाद

और

ये बताने के बाद की फला फला मर गए

सुखा पड़ गया या बाढ़ में सब बह गया

भैस या गाय मर गयी

वो बच्चा पैदा होते ही मर गया

अंत में ये जरूर लिखा होता था

अपना ध्यान रखना 

यहाँ बाकि सब कुछ ठीक ठाक है

पति पत्नी की चिट्ठिया गोपनीय होती थी

इसलिए उनका ब्यौरा भी लिखना ठीक नहीं

सारे आशिक अंत में जरूर लिखते थे

लिखा है ख़त खून से स्याही न समझाना

शहर की चिट्ठिया इतनी मजेदार नहीं होती थी

इसलिए उन पर भी क्या लिखना

हां तार भी होता था

जो बहुत ही भयानक होता था

तार आने का मतलब ही होता था

की कोई जरूर मर गया

तार खोलते वक्त पढने से पहले ही

रोना धोना शुरू हो जाता था घर में

चाहे किसी ख़ुशी को जल्दी से बताने को

भेज दिया हो किसी अपने ने

तार आने की खबर पूरे गाँव में

और

उस समय के शहरी मुहल्लों में भी

बहुत जल्दी फ़ैल जाती थी

और 

लोग मुह लटकाए आने लगते थे

दुःख बांटने

चिट्ठिया सहेज कर राखी जाती थी

किसी कोने में या किसी संदूक में

एक और रिवाज था

चिट्ठी आने पर

पूरे परिवार को इकट्ठा कर पढने का

पढना भी तो 

गाँव में कोई कोई ही जानता था

वही सबकी चिट्ठी बांचता था

अगर दूर रह रहे पति की चिट्ठी

पत्नी के लिए होती थी

तो 

कुछ पढ़ कर कुछ छोड़ देता था

और कह देता था

की बाकी  बात

वो अपनी मेहरारू को बता देगा

और वो आकर बता देगी

तब कुछ ऐसी ही मर्यादाये होती थी

कोई दुःख का समाचार

चिट्ठी बांचने वाले की अचानक

हिलते हुए ओठो और आँखों से

ही पता लग जाता था

क्योकि कुछ पल वो चुप हो जाता था

दुःख दूसरे का था पर सब रोते थे

जसे

पहले लड़की किसी की भी विदा होती थी

पर रोता पूरा गाँव था

फिर रोना पूरा कर वो बांचता था चिट्ठी

कुछ चिट्ठिया 

छुपा कर भी रख देने का रिवाज था

कुछ घर में षड़यंत्र के कारण

और 

कुछ हंसी ठिठोली के लिए

इतिहास में तो चिट्ठियों ने

बड़ी बड़ी क्रांतियाँ करवाई है

तो ज्ञान का प्रसार की किया है

बहुत से जाने मने लोगो की चिट्ठिया

तो आज तक रौशनी का काम करती है

अगर प्रकाशित हो गयी है

या पाण्डुलिपि के तौर पर मौजूद है

क्या होता था जब कोई अपना

कही चला जाता था

तो रोज डाकिये का इन्तजार करना

और

अकसर डाकघर तक चले जाना

पूछने के लिए

की

हमारी कोई डाक है क्या

मिल गयी तो नेमत पाने की ख़ुशी

और नहीं तो उदास होकर लौटना

कितना रोमांच था जिंदगी में

बहुत सी चिट्ठिया

असली भावना का प्रवाह होती थी

मन भी भीग जाता था और भावनाए भी

मेरे पास भी है

सहेज कर रखी हुयी कुछ चिट्ठिया

एक अपने पिता की आखिरी चिट्ठी

और कुछ अपने हमसफ़र की

जिन्हें मैं अक्सर पढता हूँ

अक्श उभर आते है हमेशा उनके

जब भी वो चिट्ठियां पढता हूँ

तो काफी दिन का  दर्द

आँखों के रास्ते बह जाता है

जी हाँ चिट्ठिया क्या होती थी

आज के लोग क्या जाने

और क्या जाने

उनके आने के इन्तजार का मज़ा 

और

उनको बार बार पढने

तथा सहेजने का मज़ा

हो सके तो चिट्ठिया लिखिए

और 

नयी पीढ़ी को लिखना सीखाइए

मोबाइल और फोन अपनी जगह है

और चिट्ठिया अपनी जगह

वाह रे चिट्ठियां

जब लगा था मेरे घर फ़ोन

जब लगा था मेरे घर नया नया फोन

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एक दिन फोन मंत्री मिल गए

और पूछ लिया घर में फोन है

लागा जैसे कुछ अपराध या हीनता है

घर में फोन नहीं होना

बहुत मुश्किल से मुह से निकला था

नहीं हम कैसे रख सकते है फोन

हम तो साधारण आदमी है 

कहा से देंगे उसका पैसा 

उन्होंने जारी कर दिया एक आदेश

एक कमिटी का सदस्य बनाने का

और जब आयी थी उसकी चिट्ठी 

क्या ख़ुशी थी 

जैसे कितना बड़ा कुछ मिल गया 

पिता जी ने 

कई लोगो को जाकर बताया था 

उसके बारे 

कुछ दिन में लग गया वो लाल रंग का फोन

ये भी उन दिनों खबर थी अख़बार के लिए

जानने वालो और आसपास के मुहल्ले के लिए

मिलने लगी बधाइयाँ और मांगे जाने लगे नंबर

अपने फोन तो शायद ही कभी आते हो

क्योकि अपनों के पास नहीं थे फोन

पर जब पहली बार घंटी बजी 

तो सभी अजीब कशमकश में थे की क्या करे 

पिता जी ने आगे बढ़कर उठाया था चोगा 

बस इतना ही पुछा था कौन साहब है आप 

किसी अपने का फोन था 

पूरा परिवार देख रहा था गर्व से 

किसी आश्चर्यजनक चीज की तरह 

मैंने जब पहली बार उठाया था 

तो उठाने से पहले रटता रहा की हेल्लो कहना है 

पर दूसरो के तमाम फोन आने लगे

और बढ़ गयी थी रौनक घर में

कुछ दिन तो गर्व की अनुभुती होती रही 

पर फिर मुसीबत बन गया फोन 

जब किसी ने बाहर का फोन मिला दिया 

और आ गया बड़ा सा बिल 

उस ज़माने के हिसाब से 

तब ध्यान रखना पड़ता था 

की सभी काल को लाक करके रखना है 

पर 

लोगो के फोन का कोई समय ही नहीं था 

अपनी जिंदगी ही अपनी नहीं रह गयी 

सुबह से रात तक कोई न कोई 

आकार इन्तजार करता था अपने फोन का 

खाना पीना भी मुश्ल्किल 

और अपनी बात करना भी मुश्किल 

जी हा फोन 

मुसीबत का सबब भी था तब फोन  

पर स्टेटस का सिम्बल था 

तो सब कुछ बर्दाश्त करते थे लोग

ट्रंक काल

ट्रंक काल 
---------------
पहले भी होता था फोन 

पहले तो बड़ा सा काला सा

बात किसी से होती थी

सुनते सब थे पास बैठे हुए

बाद में आये नाजुक से रंग बिरंगे

और कार्डलेस भी

पर उससे पहले

लोगो के यहाँ फ़ोन भी नहीं होते थे

लोगो के यहाँ क्याशहर भर में

कुछ गिने चुने लोगो के यहां होते थे फोन

और

वो बहुत रईस होने की निशानी था

गाँव क्या ब्लोक और तहसील में भी

नहीं था कोई फोन

और बुक करनी होती थी ट्रंककाल

बहुत से लोग बुक करते

और बुक करने को लाइन में लगे होते

पूरा दिन निकल जाता और पूरी रात

नहीं मिलता था फोन तब

जिसका मिल जाता था

वो विजयी भाव ओढ़ लेता था

और बाकि उसे इर्ष्या से देखते थे

ड्यूटी लगती थी परिवार के लोगो की

एक इंतजार करता था काल लगने का

और दूसरा खाने या सोने चला जाता था

जी हां ट्रंककाल लगना भी तब

इश्वर की कृपा और किस्मत की बात थी

जब मिल जाता था फ़ोन

तो चीखना पड़ता था

की आवाज वहा तक पंहुच जाये

कई बार तो हेलो हेलो आप सुन रहे है न

कहता ही रह जाता था आदमी

और काल कट जाती थी

कई कई बार में बात हो जाती थी

और नहीं भी हो पाती थी

जी हा ऐसा होता था ट्रंककाल

तुम क्या जानो बाबु ट्रंक काल

जिसके हाथ में है एंडोरायड फोन

और ४ जी तथा ३ जी

उस थ्रिल को बस महसूस कर सकते हो

अतीत में जाकर जरा महसूसो और सोचो 

की अपनो की जिंदगी कितनी मुश्किल थी

ट्रिन ट्रिन

मिल गया मेरा ट्रंक काल

तो मिलते है ट्रंक काल के बाद

त्यौहार और व्यवहार

त्यौहार और व्यवहार 
————————

जी हां 

त्यौहार अब भी होते है पहले भी होते थे 
अब गरीब है तो 
बस लोगो को को मनाते देख लेता है 
या थोडा बहुत मना भी लेता है 
मध्यम वर्ग है तो दिखावे के लिए 
बजट बिगाड कर भी मनाता है 
उच्च वर्ग है तो कहने ही क्या 
किसी पद पर है तो वो नही मनाता 
लोग मनाते है उसका त्यौहार 
और लोगो के दिए सामानो  से 
भर जाता है घर का कमरा
जिनसे काम है उनके अलावा 
कोई किसी से नहीं मिलता 
अब किसी भी त्यौहार में 
मेसेज है न मन गया त्यौहार 
और 
मान लिया गया उसे ही मिलना 
लोगो का और शुभकामनाओ का 
त्यौहार पहले भी होते थे जो पैसे से नहीं 
भावनाओ से मनाये जाते थे 
गरीब अमीर सब खुद इन्तजाम करते थे 
त्यौहार मनाने का 
इतना फर्क था कि
अमीर के काम नौकर कर देते थे 
पर बाकी सब एक समान थे 
होली हो तो रंग सबके पास था 
और पिचकारी भी चाहे पीतल की ,लोहे की 
नहीं तो बांस को काट कर बनायीं 
गरीब की खुद की 
फूहड़ता नहीं 
बल्कि सबको सबसे मिलने वाले 
आनंद का त्यौहार था होली 
गाँव में तो झुण्ड बना कर निकलते थे सब 
उम्र के हिसाब से 
अपनी अपनी भाभियों से होली खेलने 
गुझिया बनाने में पूरा परिवार जुटता था 
बच्चे भरते और मोड़ते या काटते थे 
माँ बेलती थी तो पिता सेंकते थे गुझिया 
बेईमानी की भी गुंजाइश थी 
किसी किसी गुझिया में 
ज्यादा मावा भर कर खुद खा लेने की 
और सेव झाड़ना सेंकना 
कई दिनों तक चलता था त्यौहार 
दीपावली में पतली डंडियो 
जो आम तौर  पर नरगट 
या अरहर की होती थी 
तीन तीन को इस तरह बांधना 
की उस पर दिया रख सके 
और दरवाजे के सामने उन्हें सजाना 
शहर में पहले तो छोटे छोटे दिए 
और बाद में मोम्बत्तिया आया गयी 
तब भी कई दिन पहले से 
मिठाई जैसी चीजे बनती 
अपने ज्ञान और हैसियत के हिसाब से 
कई दिनों तक तैयारी होती थी 
पर जो तब था और आज नहीं है 
वो था समूह में मनाना या समाज में 
तब फोन और मोबाइल नहीं थे 
तो लोग मोबाइल रहते थे 
खूब मिलते थे एक दूसरे से 
त्यौहार में एक परिवार आकर मिला गया 
तो इसका मतलब ये नहीं की मिलन पूरा हो गया 
अगले दिन ये पूरा परिवार उनके घर जाता था 
और चलता था कई दिनों तक ये क्रम 
और फिर पूरा होता था त्यौहार 
जी हां त्यौहार एक परिवार नहीं 
पूरा समाज मनाता था एक दूसरे के साथ  
जो कही खो गया लील लिया नये ज़माने ने 
औरआर्थिक दिखावा 
हीन भावना पैदा कर देता है आज बहुतो में 
देखा होगा आपने भी 
जब आप बहां रहे होते है सफ़ेद या काला धन 
तो बहुत सी उदास आँखे 
उसे बस टुकुर टुकुर देख रही होती है 
जो पहले के सादे त्योहारों में नहीं होता था 
और तब केवल त्यौहार नहीं 
सच्चा व्यवहार भी होता था

मंगलवार, 11 अगस्त 2020

हा जीवन इसको कहते है

चाहे तो मेरी ये कविता पढिए -

जिंदगी 

कब होगी पहचान हमारी 

इतने सालो से है दूरी 

क्या मजबूरी 

जिन्दा तो है 

पर क्या सचमुच 

क्या जीवन इसको कहते है 

पांव में छाले भाव में थिरकन

गले में हिचकी आँख में आंसू  

नीद नहीं और पेट में हलचल 

ना पीछे कुछ ,ना आगे कुछ 

बस अन्धकार है 

क्या जीवन इसको कहते है 

जीवन कब हमको मिलना है 

या फिर ऐसे ही विदा करोगे 

कुछ तो सोचो 

हम दोनों क्या जुदा जुदा है 

कुछ तो बोलो 

और भविष्य के ही पट खोलो 

या फिर कह दो 

हां जीवन इसको ही कहते है | 

जींना है तो हंस कर जी लो 

या फिर दर्द गरल को पी लो 

तेरे हिस्से में बस ये है 

मैं भी तो मजबूर बहुत हूँ 

तेरी खुशियों से दूर बहुत हूँ 

चल अब सो जा 

अच्छे सपनो में आज तो खो जा 

कल फिर मुझसे ही लड़ना है 

हां जीवन इसको कहते है |

बुधवार, 5 अगस्त 2020

जहा भी झुका सर

जिसके भी सामने 
झुका ये सर 
वो बस वो ही 
जानता है 
अपना घाव और पीड़ा 
संसद की सीढियो के सामने 
लेटा था कोई 
तब से 
संसद और उसकी परम्पराएं 
सिसक रही है
सुना है कि 
टूटने वाली है 
वह भव्य संसद 
जिसने देखा है 
भारत की आज़ादी का उगता सूरज 
और सारा इतिहास 
अब 
फिर लेट गया कोई 
भारत की आस्था 
और 
विश्वास के सामने ?