शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

जब और जितनी बार भी

जब और जितनी बार भी
अपने घर लौटता हूँ
और
दरवाजा खोलता हूँ
बिजली सी कौंध जाती है
और
दीवारो पर बन जाती है
अंनगिनत तस्वीरें
और
मन का बादल बरस उठता है ।
लहरो पर तैर जाती है
यादो की कितनी कागजी नावें
और कागज की नाव
तो कागज की ही होती है
खो जाती है अथाह पानी में
और
पसर जाता है सन्नाटा
दीवारो से छत तक
और
बैठक से बिस्तर तक ।

सोमवार, 11 सितंबर 2017

कौन कंगाल है

अपने घर , बच्चे
और
पिता के दर्द और तकलीफ में
क्या खूब संतुलन बैठाती हुई बेटी
पिता के दुख में मरहम लगाती हुई बेटी
दूर नौकरी की मजबूरी
फिर भी भाग कर आती हुई बेटी
पिता के दर्द से छटपटाती हुई बेटी
नौकरी , कैरियर और पिता की तड़प
में संतुलन बैठाता हुआ बेटा
पिता की तकलीफ को कम करने को
फड़फड़ाता हुआ बेटा
अपनी नींद और भूख भूल
पिता ही पिता में पूरा मन लगाता हुआ बेटा
नही हो धन दौलत ,पद और प्रतिष्ठा
पर ऐसा पिता तो कितना मालामाल है
होंगे उनके और उनके बच्चो के पास
धन, दौलत, पद ,प्रतिष्ठा ,सब कुछ
पर
ये सब नही है
तो
वो बाप किस कदर कंगाल है ।