शनिवार, 14 दिसंबर 2013

मैं ढूंढ रहा हूँ खुद को

मैं ढूंढ रहा हूँ खुद को
कुछ दिनों से
पर भटक जाता हूँ
रास्ता तलाश करते करते
केवल अँधेरा हाथ आया है
अब तक
अँधेरे में रास्ता नहीं दीखता
तो कैसे ढूंढ मैं खुद को
रास्ता तलाश करते करते
कितनी बार गिरा मैं
और कितनी बार टकराया हूँ
पता नहीं किस किस चीज से
सर फूट गया है टकरा कर
बह रहा है खून लगातार
केवल सर क्यों ,यहाँ तो
अंग अंग घायल हो गया है
और
दिल तो छलनी हो गया है
मन और अस्तित्व
विलीन हो गए है
कही अनंत में
और मैं ,मैं हूँ ही कहा
मुझे तो ख़त्म कर दिया है
मेरे बहुत अपने ने
तो क्या ढूँढना खुद को
बस घिसट रहा हूँ
अपनी लाश लिए
अब
अपनी लाश के बोझ ने भी
थका दिया है बुरी तरह
नहीं चल पाउँगा और
अपने पैरो पर
पर कोई कंधे भी तो नहीं
जिनका सहरा मिल जाये
या जिनपर लद कर जाऊं मैं ।