दर्द है
कि जाता ही नही
न मन का न तन का
न अपनी जलन का
न अपनी लगन का
न अपने कहन का
न उनके सुनन का
न उनके कहन का
न अपने सुनन का
न दिल की व्यथा का
न अपनी कथा का
न यादो का अपने
न वादो का अपने
इरादो का अपने
दवा भी नही है
दुवा भी नही है
ये किससे बताये
किसे हम सुनाये
आँसू छुपाये
या हिचकी दबाए
कटी जीभ अपनी
निकलता जो खू है
ये कैसे छुपाये
न आहो मे कोई
न चाहो मे कोई
निगाहो मे कोई
न राहो मे कोई
ये गम हम दबाए
कहा तक अब जाये
ये दर्द जो खू मे
कतरे कतरे लहू मे
चमड़ी के अंदर
औ चमड़ी के बाहर
ये जाता नही है ।
पहचान उन सभी का मंच है जो जिंदगी को जीते नहीं जीने का निर्वाह करते है .वे उन लोगो में नहीं है जिन्हें जीवन मिला है या जीने का मकसद उनके साथ रहता है .बस जीने और घिसटने के बीच दिल वालो की कलम से और दिल से जो निकल जाता है वही कविता है .पहली कविता भी तों आंसू से निकली थी .आंसू अपने दर्द के हो या समाज के ,वे निकलेंगे तों कविता भी निकलेगी और वही दिलवालो की ;पहचान ;है
सोमवार, 29 अप्रैल 2019
दर्द है कि जाता ही नही
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