शुक्रवार, 13 मार्च 2020

होली

मेरी एक पुरानी कविता -

होली नहीं खेलता मै

होली नहीं खेलता मै
बचपन बीतने के बाद से
बचपन कब बीता और मै बड़ा हो गया
पता ही नहीं चला
क्योकि अपने जिनके कारण
हम बचपन पकडे रखना चाहते है
वे हाथ छोड़ झटक देते है बचपन को
साया देने वाले अधिकार को
खैर होली नहीं खेली बहुत साल से
तभी कोई आया हवा का झोंका बनकर
खाली जीवन में और अपने साथ लायी
एक मुट्ठी बदली और
बंजर जमीन पर नम हवा तथा
मुट्ठी भर बदली से निकली फुहार ने
उगा दिए कुछ पौधे
होली मै तब भी नहीं खेलता था
परन्तु रंगों से सराबोर हो जाता था
अच्छा लगता था
किसी का ठठा कर हँसना
खुद रंगा होकर सबको रंग देना
ठहाकों से तथा अपने रंगों से
मेरी बंजर जमीन पर उगे पौधे
जब एक दिन पहले तैयारी करते थे
कपड़ों की रंगों की तथा पिचकारी की
अगले सुबह ही उठकर शरीर पर मलते थे
तेल या क्रीम ,रंगों से बचने को
फिर रंग फेंकते थे ,बचते थे और
खुद रंग भी जाते थे सराबोर
फिर शीशे में खुद को पहचानना और
दूसरों को देख कर ठठा कर हँसना
फिर प्यार से गोद में बैठ कर अपने रंगों
से सराबोर कर  देना मुझे भी
कितना सुखद था ,कितनी ऊर्जा थी
कितना जीवन था ,जीवन का अर्थ था
फिर अचानक बुलावा आ गया किसी का
जहा से आई थी बदली
मै ही भूल गया था बादल आते है
बरसते है ,धरती को नमी देते है
कुछ बारिश रुक जाती है
जीवन बन कर जीवन के कुए में ,
तालाब में या  झील में
और कुछ को सूरज सोख लेता है वापस
और पहुंचा देता है वही हर बूँद को
जहा से उसे दुबारा तय करना होता है सफ़र
इस क्रिया को भूल जाना और
न पकडे जाने वाली चीज को
पकड़ कर रखने की कोशिश ही शायद
संबंध है ,संवेग है और अनबूझ पहेली भी
मै फिर अकेला निहार रहा हूँ
लोगो को होली खेलता होली की बात करता
मैंने भी सन्देश भेज दिया और हो गयी होली
धीरे धीरे मेरे पौधे भी अपनी नयी जमीन
तलाश लेंगे जहा वे विस्तार पा सके
और फिर मेरा भी सफ़र शुरू हो जायेगा
अपनी बदली को ढूढने और
उसमे समाहित हो जाने का  ।

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