शुक्रवार, 16 जून 2023

लोकतंत्र का नपुंसक गुस्सा

मेरी कविता 

लोकतंत्र का नपुंसक गुस्सा  

हा 
मुझे बचपन से गुस्सा आता था 
किसी इंसान को अपशब्दों के साथ
जाति के  संबोधन से 
मुझे गुस्सा आता था 
शाहगंज से लखनऊ होते आगरा तक 
मैं ट्रेन के दरवाजे पर 
या बाथरूम के पास बैठ कर आता था 
की
भीड़ ज्यादा है तो  
ट्रेन में डिब्बे क्यो नही बढ़ते 
मुझे गुस्सा आता था जब कोई 
दूसरों के मैले को उठा कर 
सर पर लेकर जाता था 
गुस्सा आता था जब दूर से फेंक कर 
किसी को खाना दिया जाता था 
गुस्सा आता था 
जब सायकिल के हैंडिल पर 
दो बाल्टियां 
और 
पीछे कैरियर पर मटका रख 
दो मील दूर पानी लेने जाता था 
शहर में 
गुस्सा आता था 
जब गांव जाने के लिए 
मीलो सर पर बक्सा रख कर 
चलना पड़ता था अंधेरे ने 
गुस्सा आता था 
जब गांव में बिजली भी नही थी 
गुस्सा आता था 
जब पुलिस अंकल किसी को 
बिना कारण बांध कर ले जाते थे 
माँ बहन की गालियां देते हुए 
और 
न जाने कितनी बातो पर गुस्सा आता था 
पर किसी भी चीज को 
बदल सकने की ताकत नही थी 
इस बच्चे में 
उसके बाद भी 
बहुत गुस्सा आता रहा रोज रोज 
और आज भी गुस्सा खत्म नही हुआ 
रामपुर तिराहे पर गुस्सा हुआ था मैं 
हल्ला बोल पर भी गुस्सा दिखाया था 
पर खुद शिकार हो गया 
हर बात पर जिस पर 
जिंदा आदमी को गुस्सा आना चाहिए 
मुझे तो गुस्सा आता रहा 
और 
मैं दुश्मनो में शुमार हो गया 
मुझे निर्भया ,दादरी ,मुजफ्फरनगर 
और 
रंगारंग कार्यक्रम पर भी गुस्सा आया 
पर 
ताली पिटती भीड़ में 
खो गया मेरा गुस्सा 
और में भी खो गया साथ साथ 
पानी पीकर या पानी के बिना 
लोगो के मर जाने पर भी आया गुस्सा 
संसद हो या मुम्बई 
मेरा गुस्सा सड़क पर आया 
लॉटरी हो या शहादत 
सड़क पर फूटा गुस्सा 
वो खरीदने अथवा मारने की धमकी 
नही रोक सकी मेरे गुस्से को 
धक्के खाती जनता और कार्यकर्ता 
भी बने मेरे गुस्से के कारण 
मुझे आज भी गुस्सा आता है 
बार बार बदलते कपड़ो पर 
अन्य देशों में मेर देश की बुराई पर 
पिटती विदेश नीति 
और अर्थव्यवस्था पर 
रोज शहीद होते सैनिको पर 
कश्मीर ,अरुणाचल और नागालैंड पर 
रोज के बलात्कार पर 
रोहतक से छत्तीसगढ़ तक पर 
गुस्सा आया है सहारनपुर पर मथुरा पर 
इंच इंच में होते अपराध पर 
थाने से तहसील होते हुये 
आसमान तक के भ्रष्टाचार पर 
भाषणों के खेप पर 
आसमान छूती महंगाई पर 
न जाने कितनी चीजे है 
गुस्सा होने को 
पर अब 
में देशद्रोही करार कर दिया जाता हूँ ।
और 
मेरा गुस्सा अपनी नपुंसकता 
और 
आवाज के दबने पर उफान मारता है 
पर 
मेरे छोटा हाथ , मेरा छोटा सा कद 
और साधारण आवाज 
सिमट जाती है कागज के पन्नो पर 
फेसबुक ट्विटर ,ब्लॉगर पर 
और दीवारों के बीच 
क्योकि इस देश मे गरीब के लिए 
गरीबी और बेकारी से लड़ने को भी 
धर्म या जाति की भीड़ चाहिए 
जो मेरे पास नही है 
और 
चाहिए धन काफी धन 
जो मंच सज़ा सके 
,रथ बना सके 
और मीडिया को बुला सके ।
जो मेरे पास नही है 
गुस्सा होकर बैठ जाता हूँ लिखने 
कोई कविता या कुछ विचार 
ताकि गुस्सा 
समय के थपेड़े में मर न जाये ।

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