शनिवार, 14 अगस्त 2010

सुनामी की त्रासदी

उस दिन देखा था
अचानक आई सुनामी की त्रासदी
छुटियाँ मनाते ,नाचते गाते
लोग जाने कहा खो गए
कुछ तों भाग भी रहे थे बचने को,
पर मौत से कोई नहीं भाग सका है
और बाढ़ की त्रासदी का वह दृश्य.\
कई दिनों तक बेचैन किये रहा मन को
एक परिवार एक दूसरे को पकडे था,
और सबने मिल कर पकड़ा यह पेड़ को
रिश्तो ने रिश्तो को पकड़ा था और,
पकड़ा था ना बिछुड़ने की भावना को
लेकिन मौत के वेग ने बहाया एक को
देखते देखते विलुप्त हो गया वह कही
फिर दूसरा,तीसरा तथा चौथा,
अंतिम को बहाया धारा ने या
उसने खुद छोड़ दिया पेड़ को .
यह जीवन की सच्चाई का परिदृश्य था,
जो त्रासदी के रूप में सन्देश दे रहा था नश्वरता का
लेकिन फिर भी जीवन तों जुड़े रहने का नाम है
और बिछुड़ने पर तकलीफ देता है .
कल ही तों चुपके से सर का साया उठ गया,
बिना कोई कष्ट दिए
या कष्ट देने की इच्छा ही नहीं थी ,
मथता रहा मन बहुत दिनों तक
अभी ये सदमा पोछ भी नहीं पाए थे कि
जो अनजाना जीवन में आया
 और जीवन बन गया
जीवन से लड़ने लगा ,
शरीर से जीवन का निकल जाना
बड़ा कष्टकारी होता है
नियति या जीवन त्रासदियो का ही नाम है
और जीवन कि इस त्रासदी ने लिख दिया इबारत
और शुरू हो गई जंग कस कर पकडे रहने
 और हाथ से छूट जाने के बीच
ज्यो ही कोई रपट बताती कुछ ठीक है
मन ठठा कर हंस पड़ता
जब सन्देश शंकालु होता मन क्या
खून का कतरा कतरा विखंडित हो जाता
पूरी कोशिश कि पकडे रहने कि जीवन को ,
अपनों कि खुशियों ,किलकारी ,भविष्य को
सबकी धुरी और अपने संबल को ,
लेकिन वे पेड़ पकडे हुए और छुटते हुए लोग ..
हर पल अभिनय करना कितना भारी होता है ,
क्योकि ये मंच नहीं है
जीवन है, अपने है,और अपनों से अभिनय
तथा पल पल छिनता जीवन छीजता विश्वास
यह जीवन कि सुनामी ,
विश्वाश कि बाढ़ ,रिश्तो का भूस्खलन
तथा आस्था और अस्मिता पर गिरता दिखाई देता
 पहाड़ और बर्फ कि फिसलन है
और कलम कि स्याही अंत में
 शब्दों का साथ छोड़ रही है धीरे धीरे ,
और अचानक स्याही सूख गई और
शब्द भी ख़त्म हो गए, बस स्तब्धता................

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