शनिवार, 14 अगस्त 2010

कभी कभी दर्द खून के कतरे कतरे में समां जाता है

कभी कभी दर्द खून के कतरे कतरे में समां जाता है
होता भी है और दिखता भी नहीं
कभी लगता है की फट पड़ेगा दर्द से समूचा अस्तित्व
पर अस्तित्व खुद सवाल बन जाता है
शिराओ में बहता रक्त तथा अंतर्मन में भावनाओ का वेग
लगता है दोनों साथ छोड़ गए है
पर जीवन तों चलने, जूझने और खरा उतरने का नाम है
एक बार फिर कस कर भींच लेता हूँ स्वयं को
समेट कर उर्जा खड़ा हो जाता हूँ ,अपनों के भविष्य के लिए
नहीं तारी होने देता नकारात्मकता को 
और इस विचार के साथ कुर्सी पर बैठ जाता हूँ
की दुनिया किसी के साथ ना ख़त्म हुई है ना होगी
कोई नहीं जाता किसी के साथ अंतिम और अज्ञात पथ पर
यादो और वादों को ताकत भी तों बनाया जा सकता है
सपनों तथा इच्छित खुशियों को पूरा करने के लिए
यदि पूरा कर लिया तों महसूसा जा सकता है कोई आसपास
कष्टों वाले शरीर के बिना सूछ्म रूप में हर वक्त हर स्थान पर
पता ही नहीं चलने देता की रो रहा है या हंस रहा है
कितना सुखद है यह अज्ञात अस्तित्व,
ये अनूठा सम्बन्ध अमूर्त और व्यापक |

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