सोमवार, 25 मार्च 2013

तुम्हे सब पता है मैं जानता हूँ

तुम्हे सब पता है
मैं जानता हूँ
मुझे सब पता है
तुम जानते हो
हम दोनों सब जानते है
पर दोनों ही चुप हैं
अपने लबों को कसकर
भींच रखा है
हाथो को पकड़ रखा है अपने ही
जज्बातों को बांध रखा है
पर तूफ़ान आता है जब
तटबंध टूट जाते है तब
तो बस चारो तरफ
सैलाब ही सैलाब होता है
और बह जाता है सब कुछ
ये जानते हुए भी
हमने बांध बना रखे है
अन्दर भी बाहर भी
टूट जाये सब कुछ
और आये तबाही
उससे पहले ही क्यों न
खोल दे सारे बंधन
उन्मुक्त होकर उड़ जाये
अनन्त आकाश में
स्वछन्द होकर
न तुम, तुम रहो,
न हम, हम रहे
बस कोई और बन जाये दोनों
जमीन पर आकाश पर
उस नीले पानी के अनन्त छोर तक
जहा जहा भी कुछ भी है वहा तक ।


कोई टिप्पणी नहीं :

एक टिप्पणी भेजें