सोमवार, 3 अप्रैल 2017

पच्चीस साल बाद फिर यही आएंगे ।

खिड़की से झांकता पहाड़
और
लाल ,हरे छतों वाले मकान
पहाड़ ढके है हरीतिमा से
और
देवदार के वृक्षो को देखकर
लगता है
उनमें प्रतियोगिता होती है
देखो जमीन से निकला मैं
निकल जाऊंगा सूरज के पास
कभी लगता है ऊँचाई पर बैठकर
कि
इन वृक्षो पर टंगे है ये घर
या घरो की दीवारों पर उगे है देवदार
सुबह एक पहाड़ के पीछे से
निकला था सूरज
और धीमी गति से
चलते हुए झांकता रहा मेरी खिड़की में
धीरे धीरे साथ छोड़ दिया सूरज ने
और थोड़ी देर बाद
किसी पहाड़ के पीछे छुप जायेगा
आभाहीन होकर साहित्य में
पर विज्ञानं उसे छुपने नहीं देखा
और न आभाहीन ही होने देगा
यही तो लड़ाई है
विज्ञानं और साहित्य में
एक कल्पनाओं की उड़ान
उड़ लेना चाहता है
उन्मुक्त होकर
जमीन से आकाश तक
और दूसरा
पटक देता है यथार्थ की जमीन पर
पर
मेरी खिड़की जीवन है
और सूरज की यात्रा हो
या पहाड़ और वृक्ष
जीवन यात्रा का संदेश देते है
अपने तरीके से
इतना चमकता सूरज
खो जायेगा कुछ देर में
और
कालिमा ढक लेगी जीवन को
और पसार देगी
जीव जंतुओं को तन्द्रा में
कुछ कल फिर उठेंगे
और चल पड़ेंगे फिर
जीवन की जद्दो जहद में
और
कुछ सोये ही रह जायेंगे
अनन्त यात्रा के लिए
पूरी हो जायेगी उनकी जीवन यात्रा
और छोड़ जायेगी कई सवाल
और बना जायेगी बहुतो को सवाल
ये खिड़की है या संसार का झरोखा है
निकल नहीं पा रहा हूँ मैं
पर महसूस रहा हूँ
किसी की पदचाप माल पर
उस टेनिस कोर्ट के सामने की सड़क पर
और
सुनाई पड़ रही है मुझे खिलखिलाहट
कुफरी के बर्फ में धंस गए पांवों की
जद्दोजहद के साथ
की आ पड़ा एक बर्फ का गोला मेरे ऊपर
फिर दूसरा और तीसरा ,पता नहीं कितने
बास्केटबॉल का हुनर काम आ रहा था
मैं भी बच नहीं रहा हूँ
और
क्यों बचू इस खेल से जो
आनंदित कर रहा है
अरे कहा खो गए
बर्फ के एक छोटे से पहाड़ के पीछे से
आती है आवाज
और अचानक लुढ़क जाता है
क्लामंडी खाते हुए मेरे पास आने को
चाय लाऊं साहब
ये क्या
यहाँ विज्ञानं ने नहीं
सेवाभाव ने तोड़ दिया
मेरा यादो का क्रम
विलुप्त हो गया वो
अनजाने को देख कर
फिर बहुत कोशिश की
कि आ जाये दुबारा
मेरे चिंतन और यादो के आगोश में
पर ना
जब मैं थी आप के पास
तो कोई आया कैसे
क्या चाय जरूरी है या मैं
बहुत कहा हां केवल और केवल आप
पर रूठ गए तो रूठ गए
बहुतो के जीवन में होता है
की रूठा हुआ फिर मानता ही नहीं ।
सूरज को भी मैं कहा पकड़ पाया
मन भर अपनी खिड़की में
चला ही गया अपनी तय यात्रा पर
उनको भी तो बहुत कोशिश किया था
पकड कर रखने की
कोई अपने जीवन को
छोड़ना भी कहा चाहता है क्या
पर कभी तेज बहाव में
कभी पहाड़ की फ़िसलन पर
हाथ छूट ही जाते है
छूट गया मेरा हाथ भीं
अचानक लगा की
कोई साया था मेरी खिड़की पर
पर मेरी आंखे कमजोर पड़ गयी
देवदार के ये पेड़ भी तो कभी भी
छोड़ देते है जमीन
और
ये पहाड़ भी कितने डरावने लगते है
कभी कभी
जब थोड़ा सा हिलती है जमीन
और क्रोधित हो ये टूट पड़ते है
जो भी आ जाये जद में उनपर
कही ऐसा तो नहीं कि
उनका हाथ नहीं छूटना था
पर इन पहाड़ो की तरह ही कुछ हुआ
और गिर पड़ा पहाड़
मेरे भी जीवन पर मेरे अपनों पर
हां तो बर्फ के गोले जो उन्होंने फेंके थे
वो न चोट देते है और न भिगोते है
पर भिगो देते है अपना तन और मन।
और सराबोर कर देते है प्रेम से
पर कभी कभी पता ही नहीं होता
कि बर्फ की चादर एक दिखावा है छल है
उसके नीचे एक खाई है
लील लेने को तैयार
जीवन में भी ऐसी बहुत सी खाइयां आती है
उस दिन टेनिस कोर्ट के सामने की सड़क पर
फिसल गया था मैं
और
उनकी खनकती हंसी रुक ही नहीं रही थी
अचानक चेहरा हो गया था सर्द
और निकल पड़ी उनकी चीख
जब नीचे सरकता गया मैं
हाथ में आ गयी कोई घास जैसी चीज
और रोक लिया था पीछे किसी के हाथों ने
तुरंत मोची के पास जाकर ठुकवाये थे
जूते के तले और एड़ियों में
रबड़ या टायर के टूकड़े
फिसलने से बचने को
पहली बार सुना था कुछ चीनी खानों का नाम
उस दिन शाम
शाम कहा रात थी वो
ये पहाड़ मुझें न चैन से सोने दे रहा न जगने
पकड़ने की कोशिश करता हूँ यादो को
कितनी तरह के भाव बदल देते है पल पल
इतनी दूर से पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ
वो होटल और उसकी वो खिड़की
इससे निहारते रहे हम दृश्य
और समेटते रहे अपनी यादो को
आज भी तो यादे ही तो समेट रहा हूँ मैं
तभी कोई आवाज आती है कही दूर से
मुझे लगता है
कोई इठला कर बोल रहा है
यहाँ 25 साल बाद हम फिर आएंगे ।
खो गयी वो आवाज ,वो हंसी
दूर कही बहुत दूर
पर सुनाई पड़ रही मुझे
आज 34 साल बाद भी
बिलकुल जीवंत जैसे वीणा के तार
छेड़ दिए हो किसी ने
पर
जाने देता हूँ यह यात्रा और ढूढता हूँ
कुछ निशान ,कुछ यादे ,कुछ वादे
और आंख बंद कर लेता हूँ
पहाड़ की हरियाली
कुछ स्याह होती जा रही है
सूरज की बिछडन के साथ
और
वो खनखनाहट कही
अनंत में डूबती जा रही है ।
बस एक वादे के साथ
पच्चीस साल बाद फिर यही आएंगे ।

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