तवायफ भी कभीं शरम से पेशा छोड़ देती है
कभी गुस्से में होती हैं तो घुंघरू तोड़ देती है
सियासत की बेशर्मी का आलम देखिये साहेब
ये अपने कर्मो से तवायफ को पीछे छोड़ देती है ।
पहचान उन सभी का मंच है जो जिंदगी को जीते नहीं जीने का निर्वाह करते है .वे उन लोगो में नहीं है जिन्हें जीवन मिला है या जीने का मकसद उनके साथ रहता है .बस जीने और घिसटने के बीच दिल वालो की कलम से और दिल से जो निकल जाता है वही कविता है .पहली कविता भी तों आंसू से निकली थी .आंसू अपने दर्द के हो या समाज के ,वे निकलेंगे तों कविता भी निकलेगी और वही दिलवालो की ;पहचान ;है
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