सत्ता ने कहा
मीडिया से
थोडा झुक जाओ
पर
कुछ घुटने के बल
चलने लगे
और
आधिकतर तो
लेट कर रेगने लगे ।
और
इस तरह
चौथा खम्भा
लेटकर खुद
सत्ता के रास्ते की
पगडंडी बन गया ।
सत्ता ने कहा
व्यव्स्थापिका से
हद मे रहो
और वो
संगम की जमुना
हो गयी
और कार्यपालिका
रूपी गंगा मे
विलीन हो गयी
तीसरा खम्भा भी
सरस्वती की तरह
भीतर भीतर
घुल-मिल रहा है
अब
सब खम्भो की
जिम्मेदारी
खुद जनता के
कन्धो पर है
क्योकी
आज़ादी
मुफ्त मे नही मिलती
फ्रीडम इस नॉट फ़्री ।
पहचान उन सभी का मंच है जो जिंदगी को जीते नहीं जीने का निर्वाह करते है .वे उन लोगो में नहीं है जिन्हें जीवन मिला है या जीने का मकसद उनके साथ रहता है .बस जीने और घिसटने के बीच दिल वालो की कलम से और दिल से जो निकल जाता है वही कविता है .पहली कविता भी तों आंसू से निकली थी .आंसू अपने दर्द के हो या समाज के ,वे निकलेंगे तों कविता भी निकलेगी और वही दिलवालो की ;पहचान ;है
शनिवार, 7 सितंबर 2019
लोकतंत्र के खम्भे
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें
(
Atom
)
कोई टिप्पणी नहीं :
एक टिप्पणी भेजें