शनिवार, 14 अगस्त 2010

कैसा लगता है अकेलापन

कैसा लगता है अकेलापन 
छोटे होते है तों डर जाते है माँ बाप का साया जरा सा हिलते ही
फिर अच्छा लगने लगता है अकेले में बैठना ,अकेले सोचना
बुनना ख्वाब तरह तरह के अपेक्षित औए अनपेक्षित भी
फिर कोई चुपके से प्रवेश कर जाता है अपनी नाव में बेअंदाज
चलने लगते है चप्पू अलग अलग दिशाओ से अलग अलग उर्जा से
अलग अलग विश्वाश और अविश्वाश से
फिर मरा मरा, राम राम होने लगता है 
औए चप्पू की दिशा ,वेग तथा लय,लयबद्ध हो जाती है
चलने लगते है नाव में साथ साथ
समय ! नाव में कुछ मासूम ,रक्तिम अनुभूति वाले सवार बैठा देता है
पता नहीं कहा तक साथ चलने के लिए नियति के अनुसार
आदत पड़ जाती है इन नाविकों की, जीवन को ,चिंतन को,भावना को
किसी पड़ाव पर किसी कारण से उतर पड़ता है कोई एक भी
तब सन्नाटा पसर आता है जीवन में,उतर आती है शाम भरी दोपहरी में 
कही ख़ाली हो जाता है मन का हर कोना,डंक मारने लगता है अकेलापन
याद आने लगती है वो चाय की प्याली ,केक की सुगंध ,चाय की छलकन
और हर वक्त  सहारा बनाए को उत्सुक एक स्वर
सभी स्वर और आवाजे बदल गयी है
कल सुबह सब कुछ लौट आएगा और चहचहा उठेंगी सभी दिशाए
फिर जीवन की नाव चलने लगेगी
उसी दिशा में पूरे विश्वाश ,वेग और समर्पण के साथ 
पूरे आवेग के साथ चप्पू दोनों तरफ चलेंगे ,
नाव सही दिशा में चलेगी
साथ बैठी सवारियां फिर हौसलाआफजाई करेंगी
अपनी मासूम अभिव्यक्तियों के साथ
एक विश्वाश होगा की जब चाहो चप्पू को कई हाथ चलना शुरू कर देंगे
उनका सम्वेत स्वर ,समग्र शक्ति और समर्थ भावना भिगो देगी सभी को
अकेलापन दूर से देखेगा उदास होकर
जब ईश्वर ही अकेला कर दे तों
अब ना चप्पू चलेंगे ना नाव चलेगी ,ना कोई स्वर गूंजेंगे
पूर्ण विराम .

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