रविवार, 22 अगस्त 2010

एक जंग जारी है अन्दर भी बाहर भी

जब हम सुख भोग रहे होते है
पूरी तन्मयता से,अधिकार और गौरव के नशे के साथ
उस वक्त हम यह रंचमात्र भी नही महसूससते है
की उसी वक्त तैयार हो रहा होता है
किसी दुःख का अनचाहा अनजाना शिलालेख
उस शिलालेख को देखते है हम अचानक
तब ऐसा लगता है सुन्दर स्वप्न देखते देखते
खतरनाक सांप ने जीभ से हमें छू लिया
दुःख और विषाद जब हमें तोड़ रहा होता है
और ऐसा लगता है
की हम सम्पूर्ण जंग हार गए है
अपने ही अस्तित्व को स्वीकारने को तैयार नही होते है 
उस वक्त भी ,हमें सबक देकर तैयार हो रहा होता है
एक स्वर्णिम भविष्य का सूरज
वह हमें ललकार रहा होता है उठ खड़े होने को
और कह रह होता है की यह पास में ही मै हू
आओ मुझे छू लो ,चाहो तों पा लो
अपनी सामर्थ्य भर,अपनी उत्कंठा भर,अपने पुरसार्थ भर
मै स्वय तों हू इस कथानक का पात्र
एक जंग के साथ ,जो भीतर भी है और बाहर भी
की कुछ छण के सुखद सूर्य को कैसे और कितना सहेजू
और किस तरह बिना सहमे और ठिठके
पार कर जाऊ अन्धेरेपन को
यह जंग लगातार जारी है ,अन्दर भी और बाहर भी
और मै सामने दीवार पार लिखा गीता सन्देश वाला चित्र
देखकर कलम रख देता हूँ
और मजबूत कदमो से चल पड़ता हूँ  .

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