शनिवार, 14 अगस्त 2010

जीवान रेगिस्तान का ठूंठ

जीवन !कभी कभी रेगिस्तान के सूखे ठूठ के समान हो जाता है
लगता है की कैसे कभी उगा होगा यह पेड़ इस रेगिस्तान में
पानी नहीं ,खाद नही और यह सब देने वाला भी कोई नहीं
उगा तों कैसे उगा ,बढ़ा तों कैसे बढ़ा ,कैसे बना ठूठ यह सवाल निरर्थक है
ठूठ बनकर  लगातार खड़े रहना खड़े रहना खुद में एक बड़ा सवाल है
चारो तरफ आखिरी छोर तक बालू ही बालू,,,,मृगमरीचिका से उम्मीद करता ठूठ 
फिर मरीचिका का भ्रम टूटते ही अंतिम छटपटाहट का शिकार होता ठूठ
फिर एक नई दिशा में पानी का आभास देता बालू का समुद्र
और फिर नए सपनो में आशान्वित हो खो गया ठूठ
खूबसूरत आभा की तिलस्मी का शिकार मुस्कराता हुआ
अंतिम लौ के समान उठान लेता हुआ वह ठूठ
जिंदगी फिर कराहती है बालू की गरमी और इस समुद्र के अकेलेपन से
अपनी ही अपने पर अविश्वाश की कुटिल मुस्कराहट से 
और निहारने लगती है दूर कही दूर
शायद अभी तक तने की कोशिकाओ में कुछ जल बचा है और                                                                          बचा है कुछ संघर्ष करने का माद्दा और सोचने की ताकत
लेकिन यदि कही से बरसात नहीं हुई तों ठूठ तों केवल ठूठ है
और साथ ही चारो तरफ फैले बालू का दूर तक फैला यह समुद्र
लेकिन जल नहीं मिल पाने की तकलीफ तों केवल ठूठ ही समझ सकता है
वह जिंदगी जो ठूठ बन गई है रेगिस्तान की
लोग उसे देखना भी पसंद नहीं करते,कोई उम्मीद नहीं होती है उससे ना
फल की या छाया की
और तपते रेगिस्तान में जहा सब कुछ जल रहा है
लकड़ी को इंधन बनाने की किसे जरूरत है
ठूठ ने सोच लिया कि जिंदगी की अंतिम हार है
तों वह इंधन बनने को भी तैयार है .

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