कही बादल फटता है और
कही जमीन फट जाती है
जमीन तब भी फटी थी
जब सीता ने
जमीन से न्याय माँगा था
सच्चाई का
पहाड़ फटते नहीं बस
सरक जाते है जमीन की तरफ
दिल भी फटता है ऐसे ही
और इन्सान
न तो जमीन की परवाह करता है
न बादल की ,न पहाड़ की और
न दिल की ही
जब फट जाता है इनमे से कुछ भी
तो जार जार रोने लगता है इन्सान
और तब भी खुद को नहीं कोसता
कोसने लगता है ईश्वर को
व्यवस्था को और दूसरे को
वाह रे इंसान
तूने खुद को खुदा मान ही लिया है
तो क्या रोना
क्यों रो है तो अपनी ही करनी पर ।
रो !जब तू फटने को मजबूर करता है
आसमान को ,जमीन को और दिल को ।
कही जमीन फट जाती है
जमीन तब भी फटी थी
जब सीता ने
जमीन से न्याय माँगा था
सच्चाई का
पहाड़ फटते नहीं बस
सरक जाते है जमीन की तरफ
दिल भी फटता है ऐसे ही
और इन्सान
न तो जमीन की परवाह करता है
न बादल की ,न पहाड़ की और
न दिल की ही
जब फट जाता है इनमे से कुछ भी
तो जार जार रोने लगता है इन्सान
और तब भी खुद को नहीं कोसता
कोसने लगता है ईश्वर को
व्यवस्था को और दूसरे को
वाह रे इंसान
तूने खुद को खुदा मान ही लिया है
तो क्या रोना
क्यों रो है तो अपनी ही करनी पर ।
रो !जब तू फटने को मजबूर करता है
आसमान को ,जमीन को और दिल को ।
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