रविवार, 21 जून 2015

कही बादल फटता है

कही बादल फटता है और
कही जमीन फट जाती है
जमीन तब भी फटी थी
जब सीता ने
जमीन से न्याय माँगा था
सच्चाई का
पहाड़ फटते नहीं बस
सरक जाते है जमीन की तरफ
दिल भी फटता है ऐसे ही
और इन्सान
न तो जमीन की परवाह करता है
न बादल की ,न पहाड़ की और
न दिल की ही
जब फट जाता है इनमे से कुछ भी
तो जार जार रोने लगता है इन्सान
और तब भी खुद को नहीं कोसता
कोसने लगता है ईश्वर को
व्यवस्था को और दूसरे को
वाह रे इंसान
तूने खुद को खुदा मान ही लिया है
तो क्या रोना
क्यों रो है तो अपनी ही करनी पर ।
रो !जब तू फटने को मजबूर करता है
आसमान को ,जमीन को और दिल को ।


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