ये अंधेरा कितना अंधेरा
चारो ओर केवल अंधेरा
नही कही से सूरज दिखता
नही रोशनी कैसी भी
आगे जाए , कैसे जाए
कदम बढ़ाए गिर ना जाये
ठिठके ठिठके कब तक रहना
अनिश्चितता कब तक सहना
कोई तो हो जो राह दिखाये
वो स्वर्ग हो या नरक हो
वो भी मेरे साथ मे जाए
पर अब ऐसा कौन मिलेगा
जीवन मे कब कमल खिलेगा
जो था वो तो बिला गया
ना जाने वो कहा गया
अब तो बस जो है हम है
चाहे अंधेरा मिटा सकें
या खुद को ही गंवा सके
इसको तय करेगा कौन
प्रकृति मौन हम भी मौन ।
पहचान उन सभी का मंच है जो जिंदगी को जीते नहीं जीने का निर्वाह करते है .वे उन लोगो में नहीं है जिन्हें जीवन मिला है या जीने का मकसद उनके साथ रहता है .बस जीने और घिसटने के बीच दिल वालो की कलम से और दिल से जो निकल जाता है वही कविता है .पहली कविता भी तों आंसू से निकली थी .आंसू अपने दर्द के हो या समाज के ,वे निकलेंगे तों कविता भी निकलेगी और वही दिलवालो की ;पहचान ;है
मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018
ये अंधेरा कितना अंधेरा
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