वर्दी पहन कर
कहाँ से आती है
इतनी घृणा
कि
जिन्हें जानते भी नही
पहचानते भी नही
जिन्होंने
कुछ बिगाड़ा भी नही
उतार देते है गोलियां
उनके सीनो में
उनके सर में
वो औरत हो ,बच्चा हो
बूढ़ा या मासूम बेटी
क्या
हाथ नही कांपते विल्कुल
और
नही दिखता इन चेहरों में
चेहरा अपनी बहन , बेटे ,बेटी
या भाई , बाप या बाबा का
और तब भी जब
कोई छोटी से बेटी भी
तन कर खड़ी हो जाती है
रायफल के सामने निहत्थी
कहाँ से आती है ये नफरत
और
कब खत्म होगी ये नफरत
ये हथियारों और मौत का खेल
इसे बंद करना ही होगा
और
बोना हीं होगा
इंसानों की जिंदगी में
प्रेम का गुलाब ,चंपा और चमेली ।
पहचान उन सभी का मंच है जो जिंदगी को जीते नहीं जीने का निर्वाह करते है .वे उन लोगो में नहीं है जिन्हें जीवन मिला है या जीने का मकसद उनके साथ रहता है .बस जीने और घिसटने के बीच दिल वालो की कलम से और दिल से जो निकल जाता है वही कविता है .पहली कविता भी तों आंसू से निकली थी .आंसू अपने दर्द के हो या समाज के ,वे निकलेंगे तों कविता भी निकलेगी और वही दिलवालो की ;पहचान ;है
सोमवार, 15 अक्तूबर 2018
घृणा की इंतहा
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