काश
रिमझिम फुहारों के साथ
हम भी बह जाते
या
लगती एक मेज बाहर
और
सज जाती उस पर
पकौड़ियाँ तरह तरह की
सूजी का हलवा
और
अदरक वाली चाय
फुहारों की बूंदे
आती चेहरे पर
या नंगे पैरों पर
और
सिहरन दौड़ जाती
सिमट जाता अस्तित्व
पिघल जाने को
काश !
पहचान उन सभी का मंच है जो जिंदगी को जीते नहीं जीने का निर्वाह करते है .वे उन लोगो में नहीं है जिन्हें जीवन मिला है या जीने का मकसद उनके साथ रहता है .बस जीने और घिसटने के बीच दिल वालो की कलम से और दिल से जो निकल जाता है वही कविता है .पहली कविता भी तों आंसू से निकली थी .आंसू अपने दर्द के हो या समाज के ,वे निकलेंगे तों कविता भी निकलेगी और वही दिलवालो की ;पहचान ;है
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